
पश्चिम में ‘योग के जनक’ के रूप में विख्यात, आध्यात्मिक गौरव ग्रंथ ”ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी” के रचयिता, योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) और सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) संस्था के संस्थापक श्री श्री परमहंस योगानंद के जीवन के विषय में पढ़ते हुए अद्भुत संयोगों से सामना होता है; विशेषकरउनकी और उनके गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि की महासमाधि संबंधी घटनाओं के बारे में।
उन्हें अपने जीवन के लक्ष्य का पहले से ही बोध था। वह अक्सर कहते कि “मैं चाहताहूँ कि मेरी मृत्यु बिस्तर पर नहीं बल्कि कार्य करते हुए,ईश्वरऔर भारत के बारे में बोलते हुए हो।” और हुआ भी ऐसा ही। 7 मार्च 1952 को लॉस एंजिलिस में, अमेरिका में भारत के प्रथम राजदूत श्री बिनय रंजन सेन के अभिनंदन समारोह में बोलते हुए, ईश्वर व भारत के विषय में अंतिम शब्दों के साथ, योगानंदजी वहीं मंच पर सचेतन महासमाधि में लीन हो गए।
वैसे फ़रवरी 1952 में उन्होंने आगामी महत्त्वपूर्ण घटना का संकेत कई बार दिया था। लेकिन उनके शिष्य भारतीय राजदूत के एसआरएफ़ आगमन और 7 मार्च 1952 के अभिनंदनसमारोह को ही महत्त्वपूर्ण घटना समझते रहे। जबकि 7 मार्च को योगानंदजी बार-बार 9 मार्च बोल जाते थे जो कि उनके गुरु श्रीयुक्तेश्वरजी का महासमाधि दिवस था। लेकिन उनके शिष्य इन दो संकेतों को समझ नहीं पाए कि वास्तव में वह अपनी महासमाधि की बात कर रहे थे।
वैसे 17 नवंबर 1951 जिस दिन उनकी अत्यंत उन्नत शिष्या श्री ज्ञान माता ने देह त्याग किया, उन्होंने कहा कि “अब सिस्टर चली गई हैं, अब यहाँ मुझे कोई नहीं रोक सकता।” लेकिन शायद योगानंदजी को इसका आभास पहले से था। क्योंकि उन्होंने अगस्त 1951 के क्रिया दीक्षा समारोह में, अपने प्रिय शिष्य श्री लिन को संन्यासदीक्षा दे राजर्षि जनकानंद नाम दिया और घोषणा कि वह उनके उत्तराधिकारी होंगे। उनका महासमाधि से लगभग 7 महीने पहले विरासत सौंपना कुछ वैसा ही था जैसा कि उनके गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी ने किया था।
स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी ने 1935 से अमेरिकामें क्रियायोग सिखा रहे योगानंदजी को टेलीपैथी द्वारा संदेश दिया, “भारत लौट आओ। पन्द्रह वर्षों तक मैंने धीरज के साथ तुम्हारी प्रतीक्षा की है। शीघ्र ही मैं शरीर त्याग कर अनंत धाम चला जाऊँगा। योगानंद, चले आओ” और अन्तर में इस आवाज को सुन योगानंदजी अगस्त 1935 को अमेरिकासे भारत पहुँचे। उन्हें अपने आश्रमों का भार तो सौंपा ही, संन्यास की उच्चतर पदवी – परमहंस- प्रदान कर कहा, “अब यह नई उपाधि तुम्हारी पुरानी उपाधि ‘स्वामी’ का स्थान लेगी।….इस संसार में अब मेरा कार्य पूरा हो गया है; अब तुम्हें ही इसे आगे चलाना है।” सब कुछ सौंप स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी, योगानंदजी को जीवन और संगठन की नौका को ईश्वर के किनारे सफलतापूर्वक पहुँचाने का आशीर्वाद दे 9 मार्च 1936 को ब्रह्मलीन हो गए थे।
सोलह वर्ष के अन्तराल पर इस गुरु-शिष्य युगल ने मार्च माह में महासमाधि ली। योगानंदजी और स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी मानवता को नई राह दिखा उच्चतर जीवन की संभावनाओं से साक्षात्कार करा कर विश्व एकता का बीज बो गए। ताकि क्रियायोग के माध्यम से मानव अपने सृजक के साथ सचेतन संवाद कर सकने की क्षमता पैदा कर सके। उनके प्रयासों के फलस्वरूप आज ‘योग’ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, सभी सीमाओं और बाधाओं से परे, मानव कल्याण का सबसे बड़ा साधन बनकर उभर रहा है। अधिक जानकारी: yssofindia.org
लेखिका : अलकेश त्यागी