
पुणे : “आदिवासी समुदाय का जीवन स्वयं में कलात्मक है। उनकी जीवनदृष्टि और कलादृष्टि में कोई भेद नहीं है। आदिवासी समाज के भीतर घटने वाले शुद्ध व्यवहारों को ध्यान में रखते हुए फिल्में और नाटकों का निर्माण होना चाहिए,” ऐसी अपेक्षा अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. सदानंद मोरे ने व्यक्त की।
‘बहुरंग, पुणे’ द्वारा आयोजित 18वें अंतरराष्ट्रीय आदिवासी फिल्म महोत्सव के अंतर्गत आज (20 मई) दिनेशकुमार यशवंत भोईर (पालघर) और दत्तात्रय हैबत तिटकारे (खेड) को कलावंत पुरस्कार तथा परमानंद हिरामण तिराणिक (वरोरा – चंद्रपुर) और कृष्णा सदाशिव भुसारे (विक्रमगढ़) को कला पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया। इन पुरस्कारों का वितरण डॉ. मोरे के हाथों किया गया। वे इस अवसर पर अध्यक्ष पद से बोल रहे थे। कार्यक्रम का आयोजन पंडित जवाहरलाल नेहरू सांस्कृतिक भवन में किया गया था। मंच पर ‘बहुरंग, पुणे’ के अध्यक्ष डॉ. कुंडलिक केदारी, डॉ. रामकृष्ण पेढेकर और आदिवासी संस्कृति के अभ्यासक ग. श. पंडित उपस्थित थे। भगवान बिरसा मुंडा (हिंदी) फिल्म के प्रदर्शन के बाद दो दिवसीय आदिवासी फिल्म महोत्सव का समापन हुआ।
डॉ. मोरे ने आगे कहा, “आदिवासी समुदाय अल्पसंख्यक है, लेकिन उनकी कला, संस्कृति और जीवनशैली की पहचान बहुसंख्यकों तक पहुँचनी चाहिए। समाजों के बीच भाईचारा निर्माण करने के लिए फिल्म एक उत्कृष्ट माध्यम हो सकता है।”
आदिवासी फिल्म और साहित्य को मिलना चाहिए स्वतंत्र पुरस्कार : डॉ. कुंडलिक केदारी
महोत्सव के आयोजन के बारे में संयोजक डॉ. कुंडलिक केदारी ने जानकारी दी। उन्होंने राज्य सरकार से यह मांग की कि “आदिवासी विषयक फिल्मों के लिए क्रांतिवीर राघोजी भांगरे के नाम से एक स्वतंत्र फिल्म पुरस्कार तथा साहित्य के लिए डॉ. गोविंद गारे के नाम से एक स्वतंत्र साहित्य पुरस्कार दिया जाए, और इन दोनों विषयों की गड़बड़ी न हो।”
पुरस्कार चयन समिति के सदस्य ग. श. पंडित, डॉ. रामकृष्ण पेढेकर, दिनेशकुमार भोईर और कविता आबनावे ने भी अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम का संचालन श्रीकृष्ण देशमुख ने किया और आभार प्रदर्शन धीरज केदारी ने किया।